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शाम होते घोंसलों को चहकना भी है ।।

तेरी उंगलियों से होकर के बहना भी है , तुझको देखने को थोड़ा ठहरना भी है , इन घोसलों में दिन भर से ख़ामोशी है , शाम होते घोंसलों को चहकना भी है ।। फ़ूल ही समझ लगाओ तो अपने गुलशन में , बसंत आने पर मुझको फिर महकना भी है ।। तेरी ज़ुल्फ में ही एक शाम हो गई , अभी तो इन आंखों में उतरना भी है ।। इन सूनी हथेलियों में अब मेहंदी क्यों नहीं , मेरी खातिर तुमको अब संवरना भी है ।। रोज़ बेहतर जीने की कश्मकश भी है , रोज़ मंजिल तक पहुंच घर लौटना भी है ।। उसकी निगाहों से कब तक छुपते फिरोगे ‘गुमनाम’ हर रोज़ उसकी गली से गुज़रना भी है ।।

ये अब्र अब मुफ़स्सल हो चुके है ,वर्ना धूप तो कबका निकल जानी है ।।

त'अल्लुकात की डोरे अब जल जानी है , हाथों से ये ज़िंदगी फिसल जानी है , इक आखिरी रात है तेरी खातिर , सुबह होते ही वो भी ढल जानी है ।। अपनी अंजुरियों में समेट कर देखो , लड़खड़ाहट मेरी संभल जानी है ।। जगह दो अपने हाथों की लकीरों में , ये जिंदगी मेरी फ़िर बदल जानी है ।। ये अब्र अब मुफ़स्सल हो चुके है , वर्ना धूप तो कबका निकल जानी है ।। जिस बर्फ़ की दरख्तों में बैठना चाहते हो , एक दिन 'गुमनाम' वो पिघल जानी है ।।

सूनी है सूनी ही रह जाती है

सूनी है सूनी ही रह जाती है , ज़िंदगी भी कितना आज़माती है , इस तरह रुखसत हो कर जाती हो , आखिरी इक मुलाकात रह जाती है ।। सीने पर वार नहीं कर पाती जब , सारी दुनिया फ़िर गले लगाती है ।। इश्क़ की बिसात पर जब हो ज़िंदगी , मोहरे सारी वहीं धरी रह जाती है ।। बेड़ी तोड़ने का क्यों पाप कर रहे , इक रात है जिसमें बेड़ियां खुल जाती हैं ।। सपने तो सच हो भी सकते है , हक़ीक़त सिर्फ़ यादें बन रह जाती है ।। मिली कहां जो तुमको हम खो दिए , मिल बिछड़ते सदियां बीत जाती है ।।

ख़ुद को भूले है मगर तुम याद आती रही

इश्क़ के पैगाम में बे-दाद आती रही , दूसरे मुल्क से लोगों की तादाद आती रही , कह रहे थे हम तुम्हें आज़ाद करने आ रहे , ज़िंदगी खुद बन कर फसाद आती रही ।। आंखे बंद हो गई राह तेरी तकते तकते , आसमां से भी किसी की परी-ज़ाद आती रही ।। भूलने के वायदे का क्या हिसाब करे , ख़ुद को भूले है मगर तुम याद आती रही ।। काफ़िर कह कर उन्होंने मशहूर इतना कर दिया , मर जाने के लिए मुबारकबाद आती रही ।। खुदा बनने बाद भी “गुमनाम” रोता रहा , जाने कितने लोगों की फ़रियाद आती रही ।

तुम कह रही थी

तुम कह रही थी की गुज़र जाएगा , तेरी याद का दौर है  जब जी रहे तो साथ है और  शायद धूमिल होने के बाद भी  किसी पन्ने पर लिखावट बन  किसी क़िताब में कैद रह जाएगा । अपना इश्क़ भी किसी कैदी सा ही रहा , आंखे दूर तलक आज़ादी खोजती  मगर सिमट के एक बंद कमरा  जिनमें दीवारों की दरख्तों से  तुम्हें निहार कर खुश देखने की कशिश में उस वक्त के खुशनुमा पल का  बेरहमी से कत्ल करना  वो पल कुछ कातिल सा रहा । मौसमी हवा को छोड़ जाना , कृत्रिम रूप को अपनाना  बारिश की बौछारों का मज़ा  पाइप से  उन बौछारों का आनंद लेना  तेरे मखमली कपोल पर सिरहाने रखी तकिया मोड़ कर उसको चूमना  सब भूल तेरी यादों में खो जाना  तुझे सपनों में पाने के लिए  चाहता हूं मैं सो जाना ।  

खामोशी से इश्क़ हम जताए कैसे

लोगों को अपने खातिर भगाए कैसे , साथ है फिर साथ हम निभाए कैसे , नज़रों ने पलकों की चादर ओढ़ी है , खामोशी से इश्क़ हम जताए कैसे ।। ये आंखे सिर्फ़ तुमको तकना चाहती है , लोगों की आंखों को बहकाए कैसे ।। ज़िंदगी से उलझ हमने इश्क़ कर लिया , ये इश्क़ की पहेली अब सुलझाए कैसे ।। एक पहिया हो तुम मेरी जिंदगी का , ये भरोसा तुमको हम दिलाए कैसे ।। वस्ल की रा।त में भी नाराज़गी , एक बोसा से हम मनाए कैसे ।

कह रहे हो प्यार तुमको बेशुमार हो गया

जो कह रहा उसको इश्क़ का खुमार हो गया , दोस्तों वो आधा यूं ही बीमार हो गया , तुमने हिज्र की रात क्या गुज़ार ली , कह रहे हो प्यार तुमको बेशुमार हो गया ।। उसके ज़ुल्फ की छांव में जो बैठ गए , बरसों के लिए तीमारदार हो गया ।। पलकें उठा कर गिराने का ये सिलसिला , आधे गांव का जीना दुश्वार हो गया ।। आंखों में धारियां उसके द्वार जो लगा लिया , उसका चश्म और भी धारदार हो गया ।। खुशमिजाज़ी में कौन हिज़्र पर लिख रहा , शाइर जाने कितना लाचार हो गया ।। एक नज़र 'गुमनाम' भी देखने चले गए , सोमवार से एक इतवार हो गया ।।

मुट्ठी तो खाली आई थी और ये खाली जाएगी ।।

वो जिन्दगी के सांचे में फिर से ढाली जाएगी , दिल में धड़कनों की फिर से बहाली आएगी , उसको हक मांगने को कोई अधिकार क्या , खिलाफ़ गर वो बोलेगी तो फिर पामाली जाएगी ।। तुम हकीकत हो गई हो मगर ख़्वाब भी ज़रूरी है , रात बातों से तेरे चेहरे की लाली जाएगी । कौन किसकी जिंदगी खुश देखकर जी रहा , जिसकी जितनी इज्जत है उतनी उछाली जाएगी । ल'अमातों से हमारे घर बस रौशन रहे , फ़र्क किसको किसके घर में बदहाली आएगी ।। शोहरतों से जलने वालों से ही दोस्ती करो , दुनिया भर से दुश्मनी थोड़े ही पाली जाएगी ।। एक दिन तो मरना है ये सोच हर पल क्यों मरे , मौत जितनी हो सके उतनी तो टाली जाएगी ।। तुम हमारे हाथ से क्या उठा ले जाओगे , मुट्ठी तो खाली आई थी और ये खाली जाएगी ।।

मोहब्बत मसाफत में जो मनहूफ़ हो गई

एक अदालत और यहां मौक़ूफ़ हो गई , एक कहानी और यहां मक़हूफ़ हो गई , * मौक़ूफ़ - निरस्त या स्थगित   * मक़हूफ़ - सर धड़ से अलग  दिल मानने को तैयार ही नहीं , तुम किसी की जिंदगी में मसरूफ़ हो गई ।। बेवफाई जिस ज़िंदगी में है , वो ज़िंदगी इश्क पर ग़ुज़रूफ़ हो गई ।। *  ग़ुज़रूफ़ - लानत तेरा चला जाना क्या सितम ढहा दिया , ये काया मोम की मा'जूफ़ हो गई ।। * मा'जूफ़ - पुतला कोई तो तेरे करीब आया है , मोहब्बत मसाफत में जो मनहूफ़ हो गई ।। * मनहूफ़ - कमज़ोर

क्या तरक्की हुई है तेरी निज़ामी में ।।

नौकर है फिर भी कमी नहीं सलामी में , हम हारे भी तो बड़ी धूम-धामी में , वो बोलने की हिदायत सिखा रहे , जिन्हे गर्व है अपनी बद-कलामी में ।। हाल क्या सुनाए उस जिंदगी का जो तुमसे मयस्सर है , काट रहे है हर पल बस तेरी गुलामी में ।। अपनी कुर्सी का इंतेजामात कर तो आए हो मगर , लोग मर रहे तुम्हारी बद-इंतजामी में ।। निवाले छीन साहिल पर जो रिहाइशियां  बना रहे हो तुम , बह जाएंगे सब बस एक सुनामी में ।। उस जहान में मशहूर हम  हो तो गए होंगे , सदियां जो हमने काटी थी गुमनामी में ।। बारिशों में भी घर जल गए है  लोगों के , क्या तरक्की हुई है तेरी निज़ामी में ।। सहेज कर तुम क़फ़स में खुश रखना  चाहते हो , खिल उठेंगे ख़ुद ही बे-नियामी में ।। तुम्हें छोड़ कर भी मंज़िल हम पा लेंगे , अकेले क्या करेंगे ऐसी मकामी में ।।

क्यों इतना तुमसे ताल्लुकात रख रहे है हम ।

तन्हाई भरी जिंदगी ज़ी रहे है हम , जी रहे है जिंदगी या मर रहे है हम , कुछ ही दिन की वस्ल की ये रात है , क्यों इतना तुमसे ताल्लुकात रख रहे है हम । ये सब्र जानाँ और बांध कर रखो , एक मुफ्लिसी के दौर से गुज़र रहे है हम । जिन बादलों ने हमको ढक के रख लिया , उन बादलों के ऊपर खिल रहे है हम । महीने की कोई तारीख़ तय करो , रोज़ मिल रोज़ बिछड़ रहे है हम ।

अख़बार सच छपने को मज़बूर ना था

बिखरे कांच पर उनका कुसूर ना था , उन बोतलों में लाशों का सुरूर ना था , वो दौर आया ही नहीं कभी , जब कोई कातिल हुज़ूर ना था ।। इज्ज़त की चादर कुछ दिन और पड़ी रहती , अख़बार सच छपने को मज़बूर ना था ।। तुम तब एक कुर्सी पर गुमान करते हो , जब लाशों को अपने कफ़न पर गुरूर ना था ।। ख़्वाब उनको भी हम दिखा ना पाए , जिनके हक़ में चश्मे नूर ना था ।।

हद में रहकर इश्क़ कर रहे

बेवफ़ाओं से वफ़ा की बात नहीं चाहिए , खुदगर्ज की काएनात नहीं चाहिए , सहन करना अगर नामर्द की निशानी है , जाओ हमें मर्द की ज़ात नहीं चाहिए ।। रोटियां ख़ून में सान कर खा रहे , लूट के धन का ज़कात नहीं चाहिए ।। तुम्हारे ख्वाब की दुनिया में हम हैं तो ठीक , वर्ना तुम्हारे प्यार का खैरात नहीं चाहिए ।। तुम्हीं वस्ल की कोई तारीख़ तय करो , फ़ोन पर दिल के जज़्बात नहीं चाहिए ।। आज भी इतना शर्मा रही हो तुम , उतार आओ हमें ये ज़ेवरात नहीं चाहिए ।। हद में रहकर इश्क़ कर रहे , प्यार में "गुमनाम" औकात नहीं चाहिए ।।

चुनाव आयोग

व्यंग - निजीकरण की ओर सरकार का रुख कुछ इस कदर है की जिस प्रक्रिया से सरकार का गठन हुआ वही निजीकरण का शिकार हो गई है । पार्टी बयानों की ओर रुख किया जाए तो निष्कर्ष यही है की जब सारे विद्यालयों में शेयरिंग इस केयरिंग जैसी बातें सिखाई जाती हो तो किसी बीजेपी एमएलए की गाड़ी से वोटिंग मशीन का होना उसी शेयरिंग इज केयरिंग का एक हिस्सा है । संघफोर्ड से पढ़े अर्थशास्त्री सरकार को यह समझाने की कश्मकश में है की जिस संस्थान से मुनाफा नहीं हो रहा उसके हिस्से को बेच देना चाहिए और अंततः वो समझा भी ले गए और सरकार ने उस ओर रुख भी किया। पहले पीएसयू की बारी थी अब चुनाव आयोग की । चुनाव आयोग को भी निजी हाथों में दे देना चाहिए क्योंकि सरकार के बजट से एक बड़ी राशि चुनाव आयोग को दी जाती है और उससे सरकार के ऊपर अतिरिक्त भार बढ़ता है । मंत्रिमंडल की बैठक ने यह तय किया की चुनाव निजी कंपनियां करवाए जिससे नई तकनीक का इस्तेमाल होगा और चुनाव निष्पक्ष होंगे।  निजी कंपनियां लाभ की दृष्टि से काम करेंगी और उनके हो रहे लाभ से सरकार को कर मिलेगा । ईधर जो रुपए सरकार चुनाव आयोग को देती है वो बच जाएंगे उसे " दीन दयाल सां

जैसे शोहरतें मिली वैसे मुज़्महिल हुए

खुद के कत्ल के इल्ज़ाम में हम शामिल हुए , जज पैसा और वो सब हम-दिल हुए , जैसे जिसका काम था उस काम के काबिल रहे , उधर तुम हुई बेवफ़ा इधर हम ज़ाहिल हुए । इन नौकरियों ने बड़ा ज़ुर्म ढहा दिया , ये मुस्तक़िल हुई और हम मुंफ़सिल हुए ।। * मुस्तक़िल - स्थाई ,  मुंफ़सिल - जुदा/अलग खुमार-ए-जहान के रंग में तुम भी रंग गए , जैसे शोहरतें मिली वैसे मुज़्महिल हुए ।। * मुज़्महिल - थका हुआ या खाली ( exhausted )   तेरे शहर में इंसाफ कैसा चल रहा 'गुमनाम' ? ज़ुर्रत देखने की तुमने की और हम क़ातिल हुए ।।

प्रेम एक किरण क्या , प्रेम पूर्ण सूर्य है ।

प्रेम ही साध्या , प्रेम ही आराध्या , प्रेम पहेली क्या , प्रेम ही व्याख्या । प्रेम बाह्य संसार , प्रेम ही अंतरित , प्रेम ही आश्रय , प्रेम ही आश्रित । प्रेम विभक्त क्या , प्रेम ही सशक्त है , प्रेम पाश है नहीं , प्रेम बंधन मुक्त है । प्रेम एक रोग क्या , प्रेम ही योग है , प्रेम में वियोग क्या , प्रेम ही संयोग है । प्रेम अपराध क्या , प्रेम सत्कर्म है , प्रेम को धर्म क्या , प्रेम खुद धर्म है । प्रेम का संघार क्या , प्रेम व्युत्पत्ति है , प्रेम नास्तिक क्या , प्रेम एक भक्ति है । प्रेम पारस भी , प्रेम वैदूर्य है , प्रेम एक किरण क्या , प्रेम पूर्ण सूर्य है । प्रेम गमगीन क्या , प्रेम अशोक है , प्रेम अंधकार क्या , प्रेम आलोक है । प्रेम में अज्ञान भी , प्रेम में श्लोक है , प्रेम से कण भी , प्रेम ही त्रैलोक है । प्रेम जीव जंतु , प्रेम देव , इंसान है , प्रेम साधना भी , प्रेम खुद भगवान है ।

बीज जब बबूल का बोया जा रहा

धरोहरों को अपने संजोया जा रहा , निबाहों को साथ ही क्यों डुबोया जा रहा ? आंचल में आम कहां से आएगा , बीज जब बबूल का बोया जा रहा । लोग कह रहे थे की आग सिर्फ़ जलाती है , यहां तो उससे पाप को धोया जा रहा । हिज़्र की रात उसकी , सब जानते , फ़ुर्सत से बैठ कर जो रोया जा रहा ।

तुम्हारे मन में क्या - क्या और ख़्याल चल रहा

दिल और दिमाग़ में इधर बवाल चल रहा , तुम बताओ की तुम्हारा क्या हाल चल रहा , सात जन्मों तक तुम्हारा साथ निभाएंगे , आज कल फ़ोन पर ये मिसाल चल रहा । तैश दिखा रहे है वो पाव भर मांस से , कौन जाने किसके ख़ून में ऊबाल चल रहा । छः साल वस्ल की रात को कह रही , तुम्हारे मन में क्या - क्या और ख़्याल चल रहा । कौन किसकी तरह दिखना चाह रहा , दिख रहा कि शेर-सा शग़ाल चल रहा । हर तरफ़ हाय हाय की पुकार आ रही , इस वबा में बस इंतकाल चल रहा ।।

बस्ती में आग फ़िर किसने लगाई है

इश्क़ था हम से और हम से बेवफ़ाई है , तुम हो और ये प्यार बे-जाई है ,  *  बे-ज़ाई - हद से ज्यादा ज़ी रहे हैं हम तेरी यादों की तन्हाई में , इस तरह की जिंदगी में जीना हरजाई है । आओ उड़ के देख लो खुले आसमान में , आख़िरी उड़ान केवल रूह उड़ पाई है । तीन साल इश्क़ छः वस्ल में होने है , हमसे पूछो कैसे इतनी शामें बिताई है ।  *  वस्ल - मिलन सबके पास माचिस "गुमनाम" दीप जलाने को , बस्ती में आग फ़िर किसने लगाई है ।

जो जाएगा जरूर वो भूखा रहा होगा

हर अफसाना वक्त से धुंदलका रहा होगा , दिल तुम्हारी मेज़बानी में झुका रहा होगा , रसोई के किवाड़ खुले छोड़ जा रहे , जो जाएगा ज़रूर वो भूखा रहा होगा । तुम्हारे कान में दाने निकल आए है ज़रूर कोई कान में मेरे खिलाफ़ फूंका रहा होगा । चांद सालों बाद आने का वायदा कर गया , वो शम्स तब तक ढलने को रुका रहा होगा । ये जिंदगी की सिखाई सीख है गुमनाम , जो आज भीगा है कल सूखा रहा होगा ।।

गुमनाम जगाओ चेतना जहिमा ब्रह्म समाए ।

पहचान रंग की आंख से ईहां तो रंग भगवान , मदिरा मांस चलि रहा क्या हिंदू क्या मुसलमान ।। लोकतंत्र वह लोक जहां जनता की मलिकाए । ईहां रंग गद्दी दिलवाए रहा अऊ रंग सरकार गिराए ।। मनुष्य मन के रंग का घर सोचिन लिए पोताए । जग घूमन आए भट्टी में अऊ करिखा लेई लेई जाए ।। मनवा जईसन चाहि रहा दर्पण रहा दिखाए , चसमन खातिर पईस्वा झूठहिं फुंकि जाए ।। रंगन पर क्यों लड़त हो अंधेर भए जो बिलाए , गुमनाम जगाओ चेतना जहिमा ब्रह्म समाए ।।

लोगों खातिर बैसाखियां बनाते हुए ।।

लगेगा दिल खुद्दारियां दिखाते हुए , ख़ुद के घर जले बस्तियां जलाते हुए , खुद के पैर हम भूल बैठे हैं , लोगों खातिर बैसाखियां बनाते हुए । जिंदगी भर राह में कांटे बिछाए थे , क्यों रो रहे फ़िर अर्थियां उठाते हुए ? दिल के सारे राज़ वो खोल बैठे है , चेहरे से बेताबियां छुपाते हुए । डूबा दोगे निबाह साथ तुम " गुमनाम " , लोगों से अपनी नेकियां गिनात हुए ।।

घाव कुछ जियादा है क्या

इक अरसे बाद मिल रहे कोई इरादा है क्या ?  आंखें नम है घाव कुछ ज़ियादा है क्या ? कहां से ये नज़रे झुकाना सीख गई तुम , ज़िन्दगी में दूसरा शहजादा है क्या ? दरीचा खोल कर हाथ क्यों हिला रही , विदा करने का ये कायदा है क्या ? शतरंज की बिसात पर राजा क्यों नहीं , राजा की औकात का पियादा है क्या ? दिल , जगह और वक्त सब खाली है " गुमनाम " , इस खालीपन का कोई इस्तिफादा है क्या ??