ये अब्र अब मुफ़स्सल हो चुके है ,वर्ना धूप तो कबका निकल जानी है ।।
त'अल्लुकात की डोरे अब जल जानी है ,
हाथों से ये ज़िंदगी फिसल जानी है ,
इक आखिरी रात है तेरी खातिर ,
सुबह होते ही वो भी ढल जानी है ।।
अपनी अंजुरियों में समेट कर देखो ,
लड़खड़ाहट मेरी संभल जानी है ।।
जगह दो अपने हाथों की लकीरों में ,
ये जिंदगी मेरी फ़िर बदल जानी है ।।
ये अब्र अब मुफ़स्सल हो चुके है ,
वर्ना धूप तो कबका निकल जानी है ।।
जिस बर्फ़ की दरख्तों में बैठना चाहते हो ,
एक दिन 'गुमनाम' वो पिघल जानी है ।।
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