शाम होते घोंसलों को चहकना भी है ।।

तेरी उंगलियों से होकर के बहना भी है ,
तुझको देखने को थोड़ा ठहरना भी है ,

इन घोसलों में दिन भर से ख़ामोशी है ,
शाम होते घोंसलों को चहकना भी है ।।

फ़ूल ही समझ लगाओ तो अपने गुलशन में ,
बसंत आने पर मुझको फिर महकना भी है ।।

तेरी ज़ुल्फ में ही एक शाम हो गई ,
अभी तो इन आंखों में उतरना भी है ।।

इन सूनी हथेलियों में अब मेहंदी क्यों नहीं ,
मेरी खातिर तुमको अब संवरना भी है ।।

रोज़ बेहतर जीने की कश्मकश भी है ,
रोज़ मंजिल तक पहुंच घर लौटना भी है ।।

उसकी निगाहों से कब तक छुपते फिरोगे ‘गुमनाम’
हर रोज़ उसकी गली से गुज़रना भी है ।।

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