अख़बार सच छपने को मज़बूर ना था
बिखरे कांच पर उनका कुसूर ना था ,
उन बोतलों में लाशों का सुरूर ना था ,
वो दौर आया ही नहीं कभी ,
जब कोई कातिल हुज़ूर ना था ।।
इज्ज़त की चादर कुछ दिन और पड़ी रहती ,
अख़बार सच छपने को मज़बूर ना था ।।
तुम तब एक कुर्सी पर गुमान करते हो ,
जब लाशों को अपने कफ़न पर गुरूर ना था ।।
ख़्वाब उनको भी हम दिखा ना पाए ,
जिनके हक़ में चश्मे नूर ना था ।।
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