चुनाव आयोग
व्यंग -
निजीकरण की ओर सरकार का रुख कुछ इस कदर है की जिस प्रक्रिया से सरकार का गठन हुआ वही निजीकरण का शिकार हो गई है । पार्टी बयानों की ओर रुख किया जाए तो निष्कर्ष यही है की जब सारे विद्यालयों में शेयरिंग इस केयरिंग जैसी बातें सिखाई जाती हो तो किसी बीजेपी एमएलए की गाड़ी से वोटिंग मशीन का होना उसी शेयरिंग इज केयरिंग का एक हिस्सा है । संघफोर्ड से पढ़े अर्थशास्त्री सरकार को यह समझाने की कश्मकश में है की जिस संस्थान से मुनाफा नहीं हो रहा उसके हिस्से को बेच देना चाहिए और अंततः वो समझा भी ले गए और सरकार ने उस ओर रुख भी किया। पहले पीएसयू की बारी थी अब चुनाव आयोग की । चुनाव आयोग को भी निजी हाथों में दे देना चाहिए क्योंकि सरकार के बजट से एक बड़ी राशि चुनाव आयोग को दी जाती है और उससे सरकार के ऊपर अतिरिक्त भार बढ़ता है । मंत्रिमंडल की बैठक ने यह तय किया की चुनाव निजी कंपनियां करवाए जिससे नई तकनीक का इस्तेमाल होगा और चुनाव निष्पक्ष होंगे। निजी कंपनियां लाभ की दृष्टि से काम करेंगी और उनके हो रहे लाभ से सरकार को कर मिलेगा । ईधर जो रुपए सरकार चुनाव आयोग को देती है वो बच जाएंगे उसे " दीन दयाल सांसद मौज नीति " में दिया जाएगा । गांवों में सांसद नहीं पहुंच पाते क्योंकि ठहरने की व्यवस्था नहीं होती अब वो व्यवस्था की जाएगी जिससे विकास तो नहीं लेकिन सांसद जरूर गांव में पहुंचते रहे। क्योंकि वैसे उच्च जाति के घर पानी पीने से निम्न जाति नाराज़ हो जाती है और निम्न जाति के यहां पानी पीने से उच्च जाति । चुनाव आयोग भी घाटे में जा रहा था इसलिए सरकार ने उसको भी कह दिया की चुनाव आयोग चुनाव के संचालन के लिए खुद ही धन इकट्ठा करे सरकार की तरफ से अब मदद में कटौती ही होगी । असम चुनाव में हुई ईवीएम की लदाई उसी के अंतर्गत की गई थी । लोकतंत्र के त्योहार में लोग नहीं रहेंगे तो कौन तैयारी करेगा यही तो लोकतंत्र की निशानी है जिसे बीजेपी जीवंत करने में लगी हुई है ।
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