इक बोसा

शांत दिन लगभग सब स्थिर बस वक़्त ही दौड़ रहा था । हर पल ऐसा ही प्रतीत हो रहा था की कब समय आए और एक जगह से प्रस्थान करे ताकी दूसरी जगह आगमन हो सके । नगर तो नहीं कहेंगे मगर नगर से कुछ कम भी नहीं था जहां पर नगर के सारे सुख परंतु उनका उपभोग ना किया जा सके । उसी समय एक ऐसा कृत्य कर बैठे जिसका कर्ता तो मैं था मगर उसका समर्थन कभी भी वैचारिक और व्यावहारिक तौर पर नहीं करता था। तात्कालिक सामाजिक माहौल से प्रभावित होकर ( जो ट्रेंड में था ) जो शायद आज भी बदला नहीं है वो अमर्यादित कार्य जो मेरे नजरिए में है वो कर बैठे । हर किसी को इतनी बड़ी बात नहीं लगती मगर बात बड़ी ही थी । सुनी सुनाई बात यही थी प्रेयसी अपने प्रेमी के समक्ष कभी घबराती नहीं है परन्तु मेरे साथ तो सब उलट था । समाज में भूतपूर्व आशिकों के द्वारा बनाई धारणा के अनुसार मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था मेरे साथ तो कुछ  है ही नहीं । एक लड़की बमुश्किल पसंद आई वो भी सामने कुछ जाहिर ना करे , समझ ही ना आए किस बात को लेकर मन में धारणा बनाए की उसे भी हमसे इश्क़ है ।
सबने तो यही कहा था की लड़कियां पहल नहीं करती पहले झुकना तो लड़कों को ही पड़ता है । लेकिन अपन
ने भी " सख़्त लौअंडे " का तमगा हासिल किया हुआ था । अब तक हम भी फिसलने को तैयार नहीं की भाई हम क्यों झुके जिसको प्यार वो आकर इज़हार करे ।
लेकिन भाई यहां मैं फिसला और लगा की तमगा हाथ से चला ही गया और ऊपर से लड़की का कंफर्म ना करना की उसे प्यार है की नहीं बात वहीं धरी की धरी रह गई ।
जब आपकी समझ और अब तक की बनी धारणा टूटती है तो आपके मन को और चोट पहुंचती है और उससे ज्यादा मानसिक प्रताड़ना कुछ नहीं । अगर उसे प्यार नहीं है तो सीधे सीधे कह देना चाहिए ट्रेन के टिकट की तरह वेटिंग में क्यों रखी है और सूत्रों से ये भी जान पड़ता था की सीट अभी बुक नहीं हुई है ।
यही सब मुझे शून्यता की ओर घसीटे ले जा रहा था की तभी तुम्हारे दाहिने गाल को चूमने की गलती कर बैठे ।
तुम्हारी खूबसूरती को तुम्हारी जुल्फें माथे के इक कोने से शुरू होकर भौंहें को बांटकर रुखसार से होते हुए उसके होंठों पर खत्म होकर और बढ़ा रही थी । लबों के स्पर्श मात्र में वहीं इतनी तेजी से दौड़ रहा समय मानो थम - सा गया हो उन्ही चंद लम्हों में मानों कई सदियां बीत गई हों । उसके बाद पल दो पल तो लगा की सब ठीक है प्रेम का इजहार भी हुआ मगर क्षणिक बाद प्रेयसी के अब्सार से अश्कों का काफ़िला निकलना तब जाकर प्रतीत हुए ये तो एक तरफा प्यार की निशानी है इसी पर मैंने लिखा था -
   तेरे गालों को चूमने का अफसोस नहीं मुझको ,
           तेरे अश्क ही गिरां बहुत है ।।   
               *   ( गिरां - बहुमूल्य) 
 
इसके बाद लाल हुए अब्सार , क्रुद्ध चढ़ी त्योंरियां , आंखों में आंसुओं के पीछे अंगारों का दहकना हृदय को चीरे का रहा था और एक ही सवाल बार बार मन खुद से  करने में लगा था की कामवासना से भरकर तो उसके रुखसार को मेरे लबों ने स्पर्श नहीं किया फिर क्यों ? उनका इस तरह रोना अब मन में भी घाव किए जा रहा था और किए पर पछतावा हो रहा था । जिसका विरोध खुद कर रहे हों ना ही आपकी मानसिक समझ और सिखाई मर्यादाएं इनकी इजाज़त देती हों फ़िर इन सबकी क्या ज़रूरत थी ? कुछ लोगों की सोच से हारकर अपने सभी आदर्शों को एक किनारे रख हतप्रभ जीवन में व्यथित विचलित और इश्क़ में हुए उथल पुथल का ही नतीजा था " एक बोसा " ।
पहले मुस्कुराना फ़िर आंखों से टेसुओं का टपटप गिरना आज भी हृदय को कचोटता है और हर पल संकुचित करता है । यही कहानी है तुम्हारे गाल पर लिये इक बोसा की इन्हीं पर लिखा था कि -

इश्क़ में जानां थे अधूरे आज मुकम्मल कर डाला  ,
तेरे गाल पर इक बोसा ने मुझको पागल कर डाला ।।






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