वो खत ।
वो खत रखे भी होंगे ?
या राख बन नालियों का रुख किए होंगे ,
देता तोहफ़े तो रखी खिताबों में खोंस देती ,
वो खत भी वहीं पर शायद रख दिए होंगे ।
हां जला देती अगर
वो महज टुकड़े कागज़ के होते ,
शब्दों के नहीं एहसासों के जलने पर
ज्यादा हम ही रोते ।
शब्दों का नज़रों से गुजर जाना ,
अब्सार से शुरू होकर
लबों पर जाकर थम जाना ।
सारे एहतमाम पर
पानी फिर गया होगा ,
कोई बातों ही बातों में
नज़रों से गिर गया होगा ।
लाइन होगी कहां ?
खत तो चूल्हे में जलती लकड़ियों की
रोशनी में पढ़ रही होगी ,
अजीब गंध है ;
देखो सहेलियां छत पर
खड़ी होकर जल रही होंगी ।
नहीं , वो चूल्हे पर दाल रख
खत में मशगूल बैठी हूं ,
उलझे भाव को समझने में
सब कुछ भूल बैठी हूं ।
हां तिरी बेवफ़ाई ही कुछ
ज्यादा लिखी मैंने ,
कहना साफ बातें भी
तुम्हीं से सीखी मैंने ।
नहीं , उन लोगों ने ही
ज्यादा कीचड़ उछाला है ,
शक जायज़ भी था
उन्हीं से तो निवाला है ।
हां अभी तो ठिकाने के लिए छत की
छाया भी चाहिए ,
मुहब्बत के मुकम्मल होने को
सर्माया भी चाहिए ।
इश्क़ का भी पैसे से ही
यहां पर है नाता ,
बसीरत - ए - नज़र होती
हमें भी इल्म हो पाता ।
हां कुछ शायरियां है
जिसने खत का दामन थामा है ,
तुम्हारी नादानियों का ही
एक माफीनामा है ।
वो माफीनामा नहीं पगलो
एक बोसा की कहानी है ,
तुम्हारे दर पर आकर कौन - सा
अपनी प्यास बुझानी है ।
गला तर करने को यहां
बहुत सा दरिया है ,
मेरी ज़िन्दगी पर
कुछ मेरा भी नज़रिया है ।
वो जो नादानियां है
वो नुस्खे लोगों के बताए है ,
बस अपनी मोहब्बत पर
हमने आज़माए है ।
अब तुम्हे यही लगा
की मेरी अपनी मनमानी है ,
मगर गौर तो करो
की क्या परेशानी है ।
हां ज़िन्दगी तो तुम्हे बस
गौर करके बिताने की सोची थी ,
इसीलिए तुम्हारे तोहफ़े
उन किताबों में खोंसी थी ।
अभी तो हाथ में खत है
और काफ़ी रात हो गई ,
तुमको याद किया
और खत से मुलाकात हो गई ।
यहां पर हूं अकेली
अंदर वाला भी कमरा है ,
सब सो रहे है और
घोर सन्नाटा भी पसरा है ।
आहट सुनते वो खत बिस्तर
तले रख भी देना ,
वर्ना ले हथेली सीने पर जकड़ी जाओगी ।
मंजूर हो तो भी जला देना वो खत मेरा ,
संजो कर रखोगी तो फिर एक दिन पकड़ी जाओगी ।।
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