कब तक जिंदा रखेगी ये बेहोशी मुझको

नज़रों से कितना घायल करेगी वो नक़ाबपोशी मुझको ,
मंज़िल भटका देते है ये बला-नोशी मुझको ,

उन आंखों ने कुछ तो जलवा बिखेरा है ,
ज़िंदा रखे है उनकी मदहोशी मुझको ।

भिखारी के शक्ल में लुटेरे आ गए है फ़िर ,
और कितना लुटाएगी ये फ़रामोशी मुझको ।।

बेबाकी से कभी तअल्लुक रहा नहीं मेरा ,
मार डालेगी एक दिन ये ख़ामोशी मुझको ।

ज़मीर मारकर सांसे तो बचा लेंगे मगर ,
कब तक जिंदा रखेगी ये बेहोशी मुझको ।

Comments

Popular posts from this blog

उनके रोने से अच्छी है शिकस्तगी अपनी ।

कहिया मिलन होई मोर सजनिया ...

वो खत ।