इश्क़ ज़ख्मी भी है और ज़ख़्म भी ।

तेरा कहर भी देखा मैंने और रहम भी ,
इश्क़ भी तेरा और ये सितम भी ,

तुझे ख़्वाब से जाने की इजाज़त क्या दे ,
तू भी साथ है मेरे और ये वहम भी ।

कौन किसके ज़ख़्म पर पट्टी बांधता फिरे ,
इश्क़ ज़ख्मी भी है और ज़ख़्म भी ।

तेरी निगाहों से गिर कर जाएंगे और कहां ,
मेरी शुरुवात भी तुम्हीं और ख़त्म भी ।

शब-ए-हिज़्र में ख़्वाब से भी बिछड़ने का वायदा रहा ,
झूठा था दिलासा तेरा और झूठी कसम भी ।

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