तिरस्कार



                                तिरस्कार

जिन उम्मीदों के साथ होली का त्यौहार मानाने घर पे आए थे उन मंसूबों पर तो पानी पड़ चुका था होली न मानाने का पछतावा तो कई सालों तक रहता है परन्तु इस साल होली मानाने का पछतावा हो रहा था | ना कोई रंग , ना कही वो भांग से मिली ठंडाई , ना कही लोगो का लोगो के प्रति प्यार और ना ही लोगो पर होली का नशा | क्यों लोग त्यौहार व उत्सव मानते है ?? लोगो के अन्दर लोगो के प्रति कम से कम त्यौहार के दिन तो सभी द्वेष मिट जाने चाहिए जिसका इलाज सिर्फ त्यौहार है | उस पर भी भेदभाव के ग्रहण रुपी छाया पड़ने लगी है , लोग आज भी भेदभाव के गिरफ्त में जकड़े हुए है जाति के भेदभाव को मिटाते ही रहे कि स्टैण्डर्ड रुपी भेदभाव का आगमन चालू हो गया | हम दूसरों के प्रति क्या सोचते है ये ज्यादा मायने नहीं रखता बल्कि ये मायने रखता है की दूसरे हमारे प्रति क्या सोचते है | बड़ो के बीच बड़े ही रहे तो ज्यादा अच्छा रहता है समारोह में उनके बीच रहने पर जो अकेलेपन एहसास होता है वो मुझसे बेहतर ही कोई शायद समझ पाए | मुझको न पहचानने वाले मुझसे ना मिले तो इस पर खलता नहीं है परन्तु सब जानकर समाने से निकल जाए इससे बड़ा कोई तिरस्कार नहीं होता | एसा भी नहीं की कपडे पुराने हो | आपकी खुबसूरत शक्ल भले ही लोगों को भले ही आकर्षित ना करे परन्तु आपकी कुर्सी लोगों को ज़रूर आकर्षित करेगी | जो छः साल पहले मुझसे आशाओं की लडिया लगाए बैठे थे वे ही आज मुझे अपने जूतों के तले दबाना चाहते है और ये वो ही लोग है जिन्हें हम अपना समझ बैठने की गलती करते है | इस लत को हम छोड़ना भी चाहते है परन्तु पुरानी यादों के साये ने मुझे जकड़े रखा है | धरती पे रहकर आसमान पे जाना तो चाहते है पर आसमान पे जाने से धरती छूट जाती है | एक छलांग लगा तो लूं पर किस चीज ने हमें जकड़े रखा है अपनों के प्रति मेरा प्यार या एक ऐसा कर्तव्य बस जिसका मै निर्वहन करता चला जा रहा हूँ और वो भी ऐसा कर्तव्य जिसका दूर – दूर तक कोई नाता नहीं है |
कुछ पुरानी सफलताओं से वर्तमान के शून्य श्रम से जंग जीती नहीं जाती है | अपने जब तक अपने साहस नहीं भरते तब तक अपने प्रति अन्दर स्वाभिमान जाग्रित नहीं होता |
कर सकने और करने में ज्यादा फर्क नहीं होता बस अपनों के सहस भरने की देरी है जिससे स्वाभिमान , सहस और एक नयी ऊर्जा खुद के अन्दर जाग्रित हो और इसी ऊर्जा से मनुष्य कार्यशील बनता है | खुद की सफलताओं के अहंकार के मद में किसी गरीब मित्र से खुद की मिलन इच्छा को दबाना नहीं चाहिए | क्या पता किस पर यमराज कब मेहरबान हो जाए और कम से कम ये ना रहे कहने को कि तड़प तो बहुत थी मिलने की जो तड़प ही बनकर रह गई |

                                                             


                  मुझको जानकार भी वो पहचानने से इन्कार करती है ,
                  शायद नज़रों से वो मेरे दिल का शिकार करती है ,                     
                  महफ़िल की रंगत कुछ बदली – बदली नज़र आती ,
                   मगर वो अक्ल से मेरी शक्ल का तिरस्कार करती है |

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