मुस्कुराए लब तेरे और मंजिले नई चुमते रहना |


तुझे लाऊं ही क्यों जीवन में जहा अन्धकार इतना है ,
उजाला कर नहीं पाऊँगी परिवार में मेरा हकदार कितना है |
तुम्हे क्यों झेलने चोंटे जो मैंने इतने वर्ष खाई है ,
नहीं मिलता है वो मरहम जिसे लगा नारी उभर पाई है |
सशक्तिकरण के नामों पर नारी को छला ही जाता है ,
मंचो पर नहीं साहब मंद समाज में कुचला ही जाता है |
कहूं कैसे व्यथा अपनी समस्या बेटी होती है ,
आत्मीय चोटें है गहरी म्रदुलित बेटी रोती है |
खुले बाजारों में यूँ सिर उठा कर घूमते रहना ,
मुस्कुराए लब तेरे और मंजिले नई चूमते रहना |
कहाँ सुख इतना मिलना है की स्वतंत्र तुम जी सको ,
अमृतमयी खुली हवाओ में दिल-ए-ख्वाबों को सीं सको |

                                      ( अम्बरेश कुमार यादव )
                               

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