पलकों से उतार न देना किसी मोड़ पर

 पतझड़ है ये भी गुज़र जाएगा ,
फूलों पर लौट कर भंवर आएगा ,

पेड़ तो सदियों से पतझड़ देख रहे ,
डालियों के सजने का अब पहर आएगा ।

पलकों से इसी बात की कशमकश हो रही ,
हल्की रही तो इनपर से कोई गिर जाएगा ।

पलकें बिछाने की ख्वाहिश भी है ,
कोई बैठेगा इनमें तो ठहर जाएगा ।

जिस तरह आंखें भर कर देखती हो तुम ,
कोई उतरेगा इनमें तो डूबकर ही मर जाएगा ।

होंठों पर लालियां भी आर्टिफिशियल लग गई ,
जाने कितनो का चहरा इनसे संवर जाएगा ।

एक तीर अपनी आंखों से छोड़ भी देना ,
जिसको लगेगी वहीं पर बिखर जाएगा ।

पलकों से उतार न देना किसी मोड़ पर ,
कोई बैठेगा खुद ‘गुमनाम’ फ़िर उतर जाएगा ।।


Comments

Popular posts from this blog

उनके रोने से अच्छी है शिकस्तगी अपनी ।

कहिया मिलन होई मोर सजनिया ...

वो खत ।