इक बोसा
शांत दिन लगभग सब स्थिर बस वक़्त ही दौड़ रहा था । हर पल ऐसा ही प्रतीत हो रहा था की कब समय आए और एक जगह से प्रस्थान करे ताकी दूसरी जगह आगमन हो सके । नगर तो नहीं कहेंगे मगर नगर से कुछ कम भी नहीं था जहां पर नगर के सारे सुख परंतु उनका उपभोग ना किया जा सके । उसी समय एक ऐसा कृत्य कर बैठे जिसका कर्ता तो मैं था मगर उसका समर्थन कभी भी वैचारिक और व्यावहारिक तौर पर नहीं करता था। तात्कालिक सामाजिक माहौल से प्रभावित होकर ( जो ट्रेंड में था ) जो शायद आज भी बदला नहीं है वो अमर्यादित कार्य जो मेरे नजरिए में है वो कर बैठे । हर किसी को इतनी बड़ी बात नहीं लगती मगर बात बड़ी ही थी । सुनी सुनाई बात यही थी प्रेयसी अपने प्रेमी के समक्ष कभी घबराती नहीं है परन्तु मेरे साथ तो सब उलट था । समाज में भूतपूर्व आशिकों के द्वारा बनाई धारणा के अनुसार मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था मेरे साथ तो कुछ है ही नहीं । एक लड़की बमुश्किल पसंद आई वो भी सामने कुछ जाहिर ना करे , समझ ही ना आए किस बात को लेकर मन में धारणा बनाए की उसे भी हमसे इश्क़ है । सबने तो यही कहा था की लड़कियां पहल नहीं करती पहले झुकना तो लड़कों को ही पड़ता है । लेकिन