एक किताब हमारे दिल की भी है
एक ज़माना था कि था ज़माना साथ मेरे ,
आज पूरे शहर में भी कोई यार ही नहीं ।
एक किताब हमारे दिल की भी है ,
कम्बख़त कोई पढ़ने को तैयार ही नहीं ।
डूबा था कई रोज़ पुरानी शराब के इक बादिया में मगर ,
उससे ज्यादा किसी में खुमार ही नहीं ।
शहजादी थी वो मेरी मेरे लिए लेकिन ,
मै उसकी खातिर उसका शहरयार ही नहीं ।
अब वो परवाह नहीं करती तो ना सही ,
वो भी परवाह ना करे फिर परवरदिगार ही नहीं ।
वो शादी से पहले सब नापाक समझती थी ,
मेरे साथ तो ऐसा कोई इकरार ही नहीं ।
वो खिलौना समझ इधर उधर रख देती थी ,
मुझे भी उसकी इस हरकत पर गुबार ही नहीं ।
और तिरी मोहब्बत का सिरदर्द पालती क्यों ' अम्बर '
जब उसे तुझसे प्यार ही नहीं ।।
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