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Showing posts from March, 2018

तिरस्कार

                                तिरस्कार जिन उम्मीदों के साथ होली का त्यौहार मानाने घर पे आए थे उन मंसूबों पर तो पानी पड़ चुका था होली न मानाने का पछतावा तो कई सालों तक रहता है परन्तु इस साल होली मानाने का पछतावा हो रहा था | ना कोई रंग , ना कही वो भांग से मिली ठंडाई , ना कही लोगो का लोगो के प्रति प्यार और ना ही लोगो पर होली का नशा | क्यों लोग त्यौहार व उत्सव मानते है ?? लोगो के अन्दर लोगो के प्रति कम से कम त्यौहार के दिन तो सभी द्वेष मिट जाने चाहिए जिसका इलाज सिर्फ त्यौहार है | उस पर भी भेदभाव के ग्रहण रुपी छाया पड़ने लगी है , लोग आज भी भेदभाव के गिरफ्त में जकड़े हुए है जाति के भेदभाव को मिटाते ही रहे कि स्टैण्डर्ड रुपी भेदभाव का आगमन चालू हो गया | हम दूसरों के प्रति क्या सोचते है ये ज्यादा मायने नहीं रखता बल्कि ये मायने रखता है की दूसरे हमारे प्रति क्या सोचते है | बड़ो के बीच बड़े ही रहे तो ज्यादा अच्छा रहता है समारोह में उनके बीच रहने पर जो अकेलेपन एहसास होता है वो मुझसे बेहतर ही कोई शायद समझ पाए | मुझको न पहचानने वाले मुझसे ना मिले तो इस पर खलता नहीं है परन्तु सब जानकर समाने स

मुस्कुराए लब तेरे और मंजिले नई चुमते रहना |

तुझे लाऊं ही क्यों जीवन में जहा अन्धकार इतना है , उजाला कर नहीं पाऊँगी परिवार में मेरा हकदार कितना है | तुम्हे क्यों झेलने चोंटे जो मैंने इतने वर्ष खाई है , नहीं मिलता है वो मरहम जिसे लगा नारी उभर पाई है | सशक्तिकरण के नामों पर नारी को छला ही जाता है , मंचो पर नहीं साहब मंद समाज में कुचला ही जाता है | कहूं कैसे व्यथा अपनी समस्या बेटी होती है , आत्मीय चोटें है गहरी म्रदुलित बेटी रोती है | खुले बाजारों में यूँ सिर उठा कर घूमते रहना , मुस्कुराए लब तेरे और मंजिले नई चूमते रहना | कहाँ सुख इतना मिलना है की स्वतंत्र तुम जी सको , अमृतमयी खुली हवाओ में दिल-ए-ख्वाबों को सीं सको |                                       ( अम्बरेश कुमार यादव )                                

बिताने संग मुझको बस मुझे मेरी माँ चाहिए |

क्यूँ हूँ स्वच्छंद मै इतना दूर आपसे रहकर , मुझे आशियाने में तेरी मैली आँचल ही चाहिए , दिन भर बीतता है वक्त मेरा शोर शराबो में , मुझे खनकती तेरी टूटी हुई पायल ही चाहिए | बहुत गुज़रा ज़माना याद है बहुत जिए है तेरे बिन , मुझे जैसा भी था हर हाल में वो बीता कल ही चाहिए | भले खाने को दे तू तेल , नोन और रोटी माँ , मुझे तो तेरे संग भूखे गुज़ारे वो पल ही चाहिए | कहाँ मिलती है ऐसी लूट ममता की इस दुनिया में , मुझे तो रूद्र तेरा रूप वो अफज़ल ही चाहिए | बहुत मारा है मुझको इस कुदरती जिंदगी ने , मुझे मारे तेरे वो पीठ पर चप्पल ही चाहिए , है मांगता ये भक्त बाबा महाकाल तुझसे , ना वो सप्तरंगी दुनिया ना वो ज़हान चाहिए | अगर देता है तू देदे खंडहर में श्री राम मयी कुटिया , बिताने संग मुझको बस मुझे मेरी माँ चाहिए |                                         ( अम्बरेश कुमार यादव )     

समाज विद्यालय और परिवार बच्चों के प्रति अपने कर्तव्यों से विमुख क्यों हो रहे है ???????

नया वर्ष प्रारंभ हो चुका है मौसम भी मनुष्यों के साये में करवट बदल रहा है गनीमत रही कि इस वर्ष भी सर्दी के प्रकोप से मध्य उत्तर प्रदेश की जनता को राहत है | सत्ता पे काबिज भाजपा भी महिला सशक्तिकरण , डिजिटल इंडिया व अन्य कार्यक्रमों के ज़रिये समाज को आधुनिक बनने मे लगी हुई है | आधुनिकता कि धुध मे समाज मे पनप रही बुराइयो को भूलते जा रहे है और कही न कही उन बुराईयों ने समाज मे अपना वर्चस्व को स्थापित कर लिया है जिन्हें रोक पाना असंभव – सा नज़र आने लगा है | परिवार की ज़रूरते पूरी करने के लिए जहाँ पुरुष नौकरी कर रहा है वहीँ अतिरिक्त ज़रूरतों को पूरी करने के लिए महिलाऐं भी पीछे नहीं हट रही है , वो भी नौकरी चाकरी में हाथ बंटा रही है | ज़रा गौर करे वो ज़्यादातर नौकरियों का वक़्त ९ से ५ या १० से ६ होता है नाईट शिफ्ट भी है जो १० बजे के बाद या उससे भी देर रात तक रहता है | एक महिला जो नौकरी कर रही है वो किन – किन दायित्वों का पालन करने में जुटी है | उसे उसकी भी देख भाल करने का दायित्व है जिसके साथ वो अपने जीवन मरण की कसमे खाई थी   | वो अपने बच्चो की परिवरिश भी करने में लगी है और नौकरी का बोझ तो सिर पर हम

६७ वर्षों से अधिक आपको जनता के अधिकार बताने में लग गए तो विकास की बात मै करना ही नहीं चाहूँगा

आज अगर हम अपने आपको आधुनिक दुनिया में कही न कहीं देख रहे है तो उसमे कहीं न कहीं फ़िल्मी दुनिया का बहुत बड़ा हाथ रहा है और बच्चे इन्टरनेट से जुड़ रहे है गाँव गाँव में मोबाइल पहुँच रहा है अच्छे मोबाइल फोन टच स्क्रीन की इस वक़्त बहुत ही ज्यादा मांग है | हमने समाज के   विकास की प्राथमिक स्तर को बढ़ावा न देकर हम द्वितीयक स्तर पर बढ़ावा दे रहे है यानी सरकार ने हमारी नींव को ही खोखला बनाए रखा है | किसान उत्पादन तो कर रहे है लेकिन हम उन्हें अच्छे संसाधन उपलब्ध नहीं करवा पा रहे है | वे कहीं न कहीं आज भी मौसम पे निर्भर कर रहे है | मल्टीस्टोरीज बिल्डिंगो के निर्माण से हम अपने विकास सुख चैन को अंक नहीं सकते है |   अगर लड़कियों के रात में घर आने से हम विकास की बात कर रहे है तो ये गलत होगा क्यूंकि वो उनका अधिकार है जो संविधान में दिया गया है यानी हम अपने संविधान में दिए अधिकारों का ही पालन अब तक नहीं कर पाए है | हमारी   सरकार कहीं न कहीं हमारे संविधान में दिए हमारे अधिकारों को ही हम तक नहीं पंहुचा रही है | ६७ वर्षों से अधिक आपको जनता के अधिकार बताने में लग गए तो विकास की बात मै करना ही नहीं चाहूँगा | आज