ख़्वाब - सा था इश्क़
ख़्वाब - सा था इश्क़ मेरा हकीकत से वास्ता न था , उसके अलावा उसे बताने को कोई दास्तां न था , राह क्या देखती वो मेरे आने का , उसके दर पर जाने का जब रास्ता न था । ज़िन्दगी को उसकी सब गुलिस्तां बनाने की बात करते थे , मिलने पहुंचे तो हाथ में किसी के एक गुलदस्ता न था । हम यहां उसी के हुस्न में जो डूबे रहते थे , एक उसका दिल था जो मिलने को तरसता न था । वे लोग उसपर सब कुछ लुटा रहे थे , कम्बख़त मुझ पर तो ये बादल भी बरसता न था । वो मेरे साथ रिश्ते तब रखना चाहती थी , अब जब उसके साथ कोई रिश्ता न था । और कहां से लाते तोड़ कर चांद तारे ' गुमनाम ' ? इंसान हूं मै भी कोई फरिश्ता न था ।।