Posts

Showing posts from December, 2021

शाम होते घोंसलों को चहकना भी है ।।

तेरी उंगलियों से होकर के बहना भी है , तुझको देखने को थोड़ा ठहरना भी है , इन घोसलों में दिन भर से ख़ामोशी है , शाम होते घोंसलों को चहकना भी है ।। फ़ूल ही समझ लगाओ तो अपने गुलशन में , बसंत आने पर मुझको फिर महकना भी है ।। तेरी ज़ुल्फ में ही एक शाम हो गई , अभी तो इन आंखों में उतरना भी है ।। इन सूनी हथेलियों में अब मेहंदी क्यों नहीं , मेरी खातिर तुमको अब संवरना भी है ।। रोज़ बेहतर जीने की कश्मकश भी है , रोज़ मंजिल तक पहुंच घर लौटना भी है ।। उसकी निगाहों से कब तक छुपते फिरोगे ‘गुमनाम’ हर रोज़ उसकी गली से गुज़रना भी है ।।

ये अब्र अब मुफ़स्सल हो चुके है ,वर्ना धूप तो कबका निकल जानी है ।।

त'अल्लुकात की डोरे अब जल जानी है , हाथों से ये ज़िंदगी फिसल जानी है , इक आखिरी रात है तेरी खातिर , सुबह होते ही वो भी ढल जानी है ।। अपनी अंजुरियों में समेट कर देखो , लड़खड़ाहट मेरी संभल जानी है ।। जगह दो अपने हाथों की लकीरों में , ये जिंदगी मेरी फ़िर बदल जानी है ।। ये अब्र अब मुफ़स्सल हो चुके है , वर्ना धूप तो कबका निकल जानी है ।। जिस बर्फ़ की दरख्तों में बैठना चाहते हो , एक दिन 'गुमनाम' वो पिघल जानी है ।।